मन तरंग

मन तरंग
लहरों सा उठता गिरता ये मानव मन निर्माण करता है मानवीय मानस चित्रण का

Saturday, January 29, 2011

मुझे सुख दे !

मुझे  सुख  दे ! मुझे सुख दे !
प्रभो मेरे , मुझे सुख दे !
मगर इतना ना दे मुझको
अति सुख ही, अति दुःख दे !

मुझे धन दीजिये इतना
कि मैं जीवन बसर कर लूँ
मेरे परिवार को पालूं
कि पूरी हर कसर कर लूँ

मगर दर पे कोई आये
वो खाली हाथ ना जाए
धरा की सारी निर्धनता
तुम्हारे धन से मैं हर लूँ

प्रभो करबद्ध विनती है
दया कर दान दे देना
अँधेरे में ना भटकूँ मैं
मुझे वह ज्ञान दे देना

अविद्या का तिमिर इस विश्व में
रह जाए ना बाकी
मुझे ऐसी ऊंचाई पर
सूर्य सम स्थान दे देना

बीमारी पास ना आये
मुझे तन दीजिये ऐसा
कि जिसमे शक्ति हो इतनी
कि जिसमे तेज हो ऐसा

कोई निर्बल दुखी लाचार पर
यदि जुल्म करता हो
दुष्ट को दंड देने को
रहे तैयार तन ऐसा

मुझे दिल दीजिये ऐसा
जो अपने दुःख सहन कर ले
पड़े कोई विपत्ति तो
उसे हंस कर वहन कर ले

मगर जो सह सके ना कष्ट
औरों के परायों के
हो करुणा से भरा इतना
जो मन भीगे नयन कर ले

मुझे धन पर मुझे तन पर
कभी अभिमान मत देना
मुझे अपने किये पर विश्व में
गुण गान मत देना 

मुझे जयमाल मत देना
मुझे जयकार मत देना
मुझे अपमान मत देना
मुझे सन्मान मत देना

मुझे मेरे वतन से प्यार
स्वाभिमान दे देना
मुझे माता की ममता और
पिता का मान दे देना

मेरे मन में रहे संतोष
हरदम हर अवस्था में
मेरे होठों पे निश्छल
स्नेह कि मुस्कान दे देना 

(कवि - महेंद्र आर्य )

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